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: मंगल का यंत्र-मंत्रादि
भौम-यन्त्रम्
गजग्निदिशयथ नवाद्रिबाणा पातालरुद्ररससंविलाख्य। भौमस्य यंत्रं सिद्धो विद्यामनिष्टनाशं प्रवदन्ति गर्गाः ॥
पुराणोक्त भौम जप मंत्र
ह्रीं धरणीगर्भसभूतं विद्युत-कांत्तिसमप्रभम्।कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥
: अर्थात् - पृथ्वी के उदर से जिनकी उत्पत्ति हई है, विद्युत-पुञ्ज (बिजली) के सदृश (समान) जिनकी (प्रभा) है, और जो हाथों में शक्ति धारण किये रहते हैं, उन मंगल देव को मैं प्रणाम करता हूँ।
वैदिक जप मन्त्र
ॐ अग्निमूर्धा दैवः रूपोऽङ्गारकोगायः, अंगारकप्रीत्यर्थ जपे विनियोगः।
अथवा
ॐ अग्निमूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम अपार्ट त्रिअर्थसि जिन्वति।
तन्त्रोक्त भौम मंत्र
क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः। या
ॐ श्रीं मंगलाय नमः।
जपसंख्या - दस हजार, कलियुग में चालीस हजार।
भौमगाय मंत्र
ॐ अंगारकाय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि तन्नो भौमः प्रचोदयात्।
मंगल- दक्षिण दिशा, त्रिकोणमंडल, आंगल 3, अवन्ति देश, भारद्वाज गोत्र, मेष, वृश्चिक का स्वामी, वाहन मेढ़ा, समिधा-खदिर।
दान द्रव्य - मूँगा, सोना, ताँबा, मसूर, गुड़, घी, लाल कपड़ा, लाल कनेर का फूल, केशर, कस्तूरी, लाल बैल, लाल चन्दन।
दान का समय - सबेरे दो घटी तक।
धारण करने का रत्न - मूँगा, अभाव में जड़ी-अनन्त मूल, नागजिह्वा की जड़, लाल डोरा व कपड़ा में सिलकर धारण करना चाहिये।
ऋणमोचन मंगल स्तोत्र
मंगलो भूमिपुत्रश्च ऋणहर्ता धनप्रदः।
स्थितसनो महाकायः सर्वकर्मावरोधकः ॥ ॥
लोहितो लोहिताक्षश्च समागानं कृपाकरः।
धर्मात्मजः कुजो भौमो भूतिदो भूमिनन्दनः ॥ 2॥
अंगारको यमश्चैव सर्वरोगोपहारकः।
वृष्तेः कर्ताऽपहर्ता च सर्वकामफलप्रदः ॥ 3 ॥
एतानि कुजानामानि नित्यं यः श्रद्धाया पठेत्।
ऋणं न जायते तस्य धनं सीघ्रमवाप्नुयात् ॥ 4॥
धरणीगर्भ-संभूतं
विद्युतकांतिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मङ्गलं प्रणमाम्यहम् ॥ 5॥
: स्तोत्रम्ङकारकस्यात् पत्च्यं सदा नृभिः।
अंगारक महाभाग ! भगवान! भक्तवत्सल ।
न तेषां भौमजा पीड़ा स्वल्पाऽपि भवति क्वचित्।। 6 ..
त्वं नमामि ममशेषमृणमाशु विनाशय ॥ 7 ॥
ऋण-रोगादि-दारिद्रयं ये चान्ये ह्यपमृत्युवः।
भय-क्लेश-मनस्तपा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥ 8॥
अतिवक्त्र दुराध्यं भोग-मुक्त-जितात्मनः।
तुष्टि ददासि साम्राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥ 9 ॥
विरञ्चि शक्रविष्णुनां मनुष्यानां तु का कथा।
तेन त्वं सर्वसत्त्वेन ग्रहराजो महाबलः ॥ दस ॥
पुत्रं देहि धनं देहि त्वामस्मि शरणं गतः।
ऋण-दारिद्रय-दुःखें शत्रुणां च भयात्ततः ॥ ॥
अभिर्द्वदशाभिः श्लोकर्यः स्तोति च धरसुतम्।
महतीं श्रीयमाप्नोति ह्यपरो धनो युवा ॥12॥
इति श्री ऋणमोचनमङगलस्तोत्र सम्पूर्णम्।